Thursday, 7 April 2016

अब तो मान जाओ............

कल शाम ऑफिस के बाद उसने कहा चलो न आज कहीं चलते हैं- पहले जैसे, मगर मैं भी अपनी ज़िद पर कायम रहा और इशारों में  मना करता रहा। मगर वो भी कहाँ मानने वाली थी। आखिर ये ज़िद करना मैंने उसी से सीखा था। वो लगातार मुझे घूरती रही ठीक उसी तरह जैसे कोई अधरों को शांत करने के लिए मृगमरीचिका को भी यथार्थ मान उसकी तरफ दौड़ता है। 
आखिर में उसकी ज़िद के आगे मैं हार ही गया। अपना काम खत्म करके मैं उसके साथ निकल गया। बहुत लम्बे समय बाद हम इस तरह की वॉक पर निकले थे। लेकिन इस बार हमारे बीच कोई संवाद नहीं थे। मैं उस से नाराज़ जो था। लेकिन उसकी कोई गलती नहीं थी। बस मेरी ज़िद थी उस से दूर रहने की। 
आज मैं उसे सुन रहा था, उसकी आँखों में  अजीब सी बेचैनी को महसूस किया मैंने। कभी वो मेरे हाथ को थामती, कभी लड़ने लगती मगर मैं निढाल सा संवेदना रहित उसको सुनता रहा। कभी खीझ में उसका हाथ झटक देता तो कभी आँख दिखाकर उसे शांत रहने को कहता। 
मगर वो भी मुझसे भलीभांति परिचित होने के कारण बस मुस्कुरा देती। 
हम चलते चलते मन्दाकिनी के पास पहुंचे, जहाँ उसने बहते हुए अविरल जल के साथ अटखेलिया शुरू कर दी और मेरे जल-प्रेम को आमंत्रित लगी। 
मगर मैं भी ठीठ, प्रतिक्रिया हीन ही व्यवहार करता रहा। 
कभी वो घर लौटती चिरैय्या की मधुर तान देती, तो कभी डूबते सूरज की लालिमा को वृक्षों से छानकर मुझे छू रही उसकी शीतलता का बखान करती। 
फिर भी मुझे शांत देख आँखों में आंसू लिए बस इतना कहती - अब तो मान जाओ..........
और मैं अपनी ज़िद को प्राथमिकता देते हुए मुंह फेर लेता। 
उसकी आँखों में कई बार मैंने आद्रता को महसूस तो किया, मगर उसने बहुत ही प्यार से मेरे नयनो को अपनी निष्कपट मुसकान की ओर प्रेषित कर लिया। 
क्योंकि मैं जानता हूँ की वही तो मेरी ताकत है, मेरे साहस का, सकारात्मकता की ऊर्जा का स्त्रोत है।  फिर उसे भी पता है कि  नेत्र-जल मेरी कमजोरी हैं और  ज़िद को अपने प्रेम से तोडना चाहती थी कमजोर करके नहीं। 
उसकी इस द्रव्यता से मैं परिचित था इसलिए मैं क्षण भर के लिए भी द्रवित नहीं हुआ। उसने चाँद को अम्बर पर चलते हुए देखकर चाँद की खूबसूरती, उसकी शीतलता और उसके अभिन्न स्वरुप का बखान करना शुरू किया कि शायद वो मेरे दम्भ को जलन से डिगा सके। उसकी कपकपाती होठों के पीछे के दर्द से अभी भी बस वो यही कह रही थी-अब तो मान जाओ..........
मगर मैं अब भी शांत था। अब मेंढकों की, झींगुरों की, बहती हुयी हवा की, गिरते हुए निर्मल जल की और बढ़ती हुयी काली रात की धीमी धीमी मीठी आवाज़ को वो मुझ तक दुहाई दे दे कर मनाने की कोसिस कर रही थी। अपनी खुली हुयी लटाओं से भी वो वृक्ष की लताओं का तुलनात्मक गुणगान कर रही थी। आखिर में वो हार मानते हुए बोली - तुम्हे कुछ नहीं कहना तो मत कहो मगर मुस्कुरा तो दो, फिर पक्का तंग नहीं करुँगी। 
मगर मेरे नेत्रो की दृढ़ता और मेरे ह्रदय की अस्थिरता मैंने उस पर बिलकुल न हावी होने दी और वापस चलने का इशारा करते हुए नदी से पैर निकालकर उठ खड़ा हो गया। 
वो भी और परेशान न करते हुए मेरे हाथ का सहारा लेते हुए नदी से बाहार आ गयी और हम वापस आने लगे। 
इस बार ज्यादा सन्नाटा था, अब वो भी दुखी थी और अपने आपके हारने से ज्यादा मुझे न मना पाने के भारी बोझ के साथ धीरे-धीरे चल रही थी। 
जाते जाते मैंने सिर्फ इतना कहा - अपना ख्याल रखना। 
वो बोली - वो तो तुम रखते हो न?
मैंने भी कह दिया - अब आदत डाल लो, क्योंकि अब मैं नहीं रख पाउँगा। 
उसने मेरा हाथ कसकर थाम लिया और बोली - पक्का ? आँखों में आँखे डालकर कहो..... 
मैं भी उसके पास गया और उसकी आँखों में अपनी आँखों को गडा कर कह दिया - हाँ पक्का, अब थोड़ा व्यस्त रहने लगा हूँ, तुम्हारे लिए समय नहीं निकाल पाउँगा।
वो भी मुस्कुराते हुए बोली -  ठीक है मैं इन्तजार करुँगी तुम्हारी व्यस्तता के खत्म होने तक। और तुम बस मान जाओ, बाकी मुझे फांसी भी मंजूर..... 
इतना कहते ही उसकी आँखों से आंसू निकल ही आये..... 
मैंने उसका हाथ झटका और अपने रस्ते चलने लगा, मेरी धड़कने भी तेज थी, आँखे लाल हो रही थी कि उसको मैं किस बात की सजा दे रहा हूँ। 
जब की संसार में वही तो है जो मुझे मेरे जीवन की तृष्णा को शांत करने में सम्बल देती है। आज भी मेरी अस्थिर परिस्थितियों के साथ सामंजस्य बैठाने में प्रोत्साहित कर रही है। मगर मैं भी निर्णय ले चूका था अब नहीं......... 
इतने वो दौड़ती हुयी मेरे पास आई और बोली - संसार में काबिल बनने की प्रतिस्पर्धा में ये मत भूल जाना की प्रेम में कोई पात्रता नहीं होती। तुम खुस रहो चाहे जहां रहो बस यही महत्त्वपूर्ण है। समझे...... 
मैंने भी कह दिया - सब समझता हूँ तुम्हारी चिकनी चुपड़ी बाते बस हम कभी नहीं मिलेंगे, अब तुम जाओ.........
वो भी बोल दी - ठीक है नहीं मिलेंगे और मुस्कुराते हुए बोली अब तो मान जाओ............

और इस तरह मेरी कविता हवाओं के साथ मेरे हाथो से रेत की तरह फिसलते हुए कहीं गम हो गयी.........