बस एक छोटी सी कोशिश की है एक वृद्ध (महिला) की पीड़ा को समझाने की... कुछ अनुचित हो तो क्षमा कीजिएगा.. और कोई सुझाव हो तो अवश्य साझा करें... धन्यवाद,,, आपका अभिषेक....
इस सक संवत तक
कई नदियाँ मैंने पार करी
मोम का सा पुतला लेकर
जैसे सदियाँ पार करी
अथक हर पग
नभ पर, भू पर
चलती थी स्वयंभू हर पल
रुक रुक बुझता रहा इरादा
पर जलता रहा मन मेरा अविरल
पतझड़ में सावन देखे
अनेकों रूप लुभावन देखे
दुःख देखा, सुख देखा
सौंदर्य का बुझता यौवन देखा
क्षीण होता रहा सुडौल नजरिया मेरा
ज्यों कटते अनेक रूपों के कानन देखे
नहीं रुकी मैं, घनघोर घटा में
जब जब सपने पावन देखे
नयी मृदा है
नयी फसल है
न जाने फिर क्या उलझन है
अपना हिस्सा पूरा करके
न जाने फिर क्यूँ तडपन है
सभी मेरे हैं
सब कुछ मेरा है
ये मिथक घर कर बैठा है
अनजाने में अनजानों से
न जाने ये मोह कैसा है
सबको जानू, पर न पहचानू
जर्जर हो जाते हैं नैना
छूटे मन, छूटे ये तन
अब तो छूटे संसार
बचपन लौटा मेरे मन का
जाने दो उस पार
अब जीना मुश्किल होता है
मेरे कारण जो कोई रोता है
व्यक्ति से वस्तु हो जाता है
उम्र होने पे मनुष्य असमर्थ हो जाता है
भूल जाती हूँ अब तो अपना भी नाम कभी कभी
करने लगती हूँ पोतों जैसा काम कभी कभी
पनघट में वो तो मुझे अधूरा छोड़ गए
ये अड़चन जीवन जीने की पूरा छोड़ गए
चिड़ने लगी हूँ अब अपने ही बेटे से
लड़ने लगी हूँ अब अपनी ही बेटी से
पोतों के खिलोने छुपा लेती हूँ
उनसे उनका समोसा छुड़ा लेती हूँ
खुद रोती हूँ जब मन करता है
नहीं तो सबको रुला देती हूँ
सो लूं ज्यादा जिस दिन
पोती मेरे शोर मचा देती है
“दादी मर गयी”
करके सबको बता देती है
होने लगा है मन चंचल सा
लगने लगा है सब बचपन सा
सब अच्छा लगता है
हर कोई सच्चा लगता है
मुझे थामने सब बढ़ते हैं
मेरी ही अब सब सुनते हैं
मुझे चिढ़ाते मुझे सताते
बात बात पे गले लगाते
सब सफल लगता है प्रयास जीवन का
उन्मुक्त सा हर कार्य यौवन का
वसुंधरा का दामन छोड़
अब अम्बुज ही मुझको भाता है
क्षितिज की किनारों से
मुझे निहार वो भी मुस्कुराता है
कभी कभी भय होता है
कुछ अपूर्ण तो नहीं
कोई ऋण तो नहीं
मेरे जीवन का भार
मुझ संग ही मुक्त हो जाये
मेरे जाने के बाद
कोई प्रेत कोई बात
मेरे अपनों का न सताए
गंगाजल, तुलसी अब सिराहने रखे हैं
सपने भी अब मुझको कम आने लगे हैं
हर अतरे दिन मेरे दर्शन को
दूर दराज से मेरे अपने भी आने लगे हैं
अब बस यही मेरी आशा है
कि पीड़ा न हो, न कोई कष्ट हो
मेरे देह का क्रिया कलाप
अब शांति से नष्ट हो
पन्ने पलटते देख कैलेंडर के
मैं खुद को तैयार करती हूँ
सिसकती धुंधली आँखों से घिसटते हुए
अपने बरबस जीवन से
अपनी मौत का
मैं इंतजार करती हूँ
(अभिषेक)