Saturday, 15 May 2021

बुझते अरमान

 बुझते हुए उन अरमानों की
मैं सिसकती हुई एक आग हूँ,
जो मर कर भी ना मरे यहाँ,
मैं वो अनंत काल का राग हूँ,
तेरे हिस्से में जो जी रहा है,
वो तेरे ही जीवन का भाग हूँ
बन्द आँखों में संजोए सपनों
के गगनचुंबी आशियानों को
पालकर मुस्कुराता हुआ सा
चाँद का वो तिलिस्मी दाग हूँ,
झरनों से उम्मीदों की जो
उठ रही है रश्मियाँ कहीं
घनघोर तमस के जाल में
उन गहराइयों को नापने
मैं उद्विग्न-सा धुंध को ओढ़ा
झरनों का निर्मल झाग हूँ,
लौ जो हैं आफताब ओढ़े
एक दिए कि भांति विद्यमान
बुझते हुए उन अरमानों की
मैं सिसकती हुई एक आग हूँ।

उत्साही

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