Sunday, 18 September 2016

तिरंगे की गोद में


हर सुबह मेरे आस-पास एक प्रश्न रहता है
मुझको अनेकों हिस्सों में
खंड खंड करने के बाद भी
क्या शांति नहीं मिली
इन अमानवीय इंसानों को
मेरे बच्चों को

जो हर क्षण
मेरी साँसों को
मेरे उतार-चढ़ाव को भी
छिन्न भिन्न कर देना चाहते हैं

लिए स्वप्न कुछ हसीन
मैं सो जाती हूँ
तिरंगे की गोद में
मगर हर सुबह जब उठती हूँ
तो ये लोग
जो मेरी संतानें हैं
रंग ले जाते हैं
तिरंगे से निकाल कर
और रह जाता है
मेरे मन सा
एक श्वेत कोरा कागज़

ये इंसान समझते क्यों नहीं
मुझे इनके आवरण से क्या
मेरा तो ह्रदय ही अशोक वृक्ष की भांति
हरा ही हरा है
उसमे सूर्य-किरणें पड़ते ही
केसरिया महक
सारे शरीर में
विस्तृत हो जाती है
कोई एक रंग ले जाने से
मेरा ह्रदय रुपी वृक्ष अधूरा हो जाता है

ये केसरिया मुझे शक्ति देता है
मजबूती देता है
मेरा मनोबल बढाकर
कभी हार नहीं मानने देता
हरा मेरी उर्वरता,
मेरी रचनात्मकता को जीवित रखता है
जो मेरी वृद्धि करने में
मेरा कल्याण करने में
मदद करता है
वहीं मेरा अत्यंत प्रिय
श्वेत
मुझे शांति देता है
सत्य में मेरा संबल बनाये सख्त है
मुझे हमेशा गौरवान्वित रखता है

और मेरा लाड़ला चक्र
मुझे प्रत्येक क्षण
अनुभूति कराता है
गति में
प्रवाहमान होने में ही जीवन है
वरन
स्थिरता एवं जड़ता
शव की भांति मृत्यु का प्रतीक है

किसी एक रंग से पूर्णता नहीं आएगी
सिर्फ आडंबरो और
अनैतिक अशांति की अस्थायी
आभा प्रतिपादित करती रहेगी
इनके मनों को
इसलिये

मेरे आवरण
मेरे आँचल का मान
इन तीनों रंगों को
साथ रखने से है

इनको बांटने से
मेरे अश्रु
मेरा ह्रदय
मेरी आत्मा
और
मेरा अस्तित्व
सब कुछ अधूरा रह जायेगा
----------------------------------------------------------------------
---------------------------------------------------------------------- एक उदासीन माँ

Saturday, 17 September 2016

वो खो गयी कहीं


कुछ रोज़ पहले
वो खुश थी बहुत
जैसे किसी शहज़ादी को
नगीना तराश कर पहनाया गया हो
महकती थी
साँसे भी उसकी
जैसे
मन के कोनों में
बगीचा लगाया हो
एक कशिश थी
उसके हर झूठे सच में
फ़नाह हो जाती थीं
फ़िज़ायें भी
उसके झूठे रस्क में
बेतरतीब जुनून था
उसकी अदायगी में
खो जाता था हर ज़र्रा
उसके ही नूर में
ख्वाहिशें तमाम उसकी
हसरत से बड़ी होती थीं
पर पसंद था अंदाज़ मुझको
उसका यूँ ख़ुद को
रवां करना
हर ख्वाहिश के लिए
उसका बिखर जाना
तवज्ज़ो ख़ुद की
ग़ैर से भी नीचे तगलीक करना
याद है अब भी मुझे
उसका मेरे लिए खुद को
रूह से बेवफ़ा करना
अब
वो दूर है
कोषों मुझसे
मग़र उसकी इबादत नहीं कम है
टूटकर बिखरे मोती सा
उसके और भी कद्रदान हैं अब तो
पर
नाफ़रमान शुरुआत उसकी
खुश नहीं रखती उसको
जानता हूँ
अब बेग़ैरत हूँ उसके लिए
जैसे नहीं होश रहता
साकी को जामो का
वैसे वो भी अब
अनजान है मेरे पैगामो से
मगर मुस्कुराहटों से
आज भी
उसकी कमियां दिखती हैं मुझे
आज भी उसे सच से डर लगता है
शायद अब भी
वो अंधेरो को पसंद करती है
उसको अब भी
रौशनी के बेफिक्राना होने का अंदाज़ 
नहीं अच्छा लगता शायद
वो खो गयी कहीं
जिसे मैं जानता और मानता था
क्योंकि
उड़ना सीख जाने से
इंसान परिंदा नहीं हो जाता
तुम सच को छुपा सकते हो
ऐ मेरे सित परों की शहज़ादी
मगर झुठला नहीं सकते
अफ़सोस ये नहीं
कि तेरा अक्स भी महरूम है मुझसे
तेरी झूठी हंसी
बनावटी दुनिया तेरी
मुझे बौना सा करती है
जो हाथ थाम मेरा
अंधेरों से बाहर आयी थी
वो खो गयी कहीं
वो खो गयी कहीं

------------------------------------------------------------------- तेरी ख़ुशी के इंतजार में.........

Sunday, 11 September 2016

पर्वतों में प्रतीक्षारत आपका कवि ..................

पर्वतों में प्रतीक्षारत
आपका कवि

कंधराओं और अविरल सरिता के मध्य

प्रतीत मानो ऐसा होने लगा है
जैसे किसी उपवन में
अनगिनत
कीट
कोमल पुष्पों का
नवीन साखों का
और कोपल से पत्रों का
भक्षण कर
अपने नियत कर्म के अन्तर्गत
अपनी क्षुधा शांत कर रहे हो
किन्तु
किसी एक का कर्म
किसी दुसरे के लिए आपदा भी हो सकता है
वैसे
इन कंदराओं की सुगंध
मंदाकनी में सूर्य की पावन छवि
और
अविरल मदमस्त बहती हुयी
अनगिनत वृक्षों से छनती हुयी पवन
मुझे प्रथम भेंट में ही आसक्त कर गयी थी
संभवतः
तब बात और थी
एक रंगों से भरे अद्भुत सुरम्य
संसार को आँखे मूंदकर
सिर्फ प्रकृति के पास चले आना
मेरा
मोह ही था कदाचित
वरन वह गुरुत्वाकर्षण
इस शांति का
इतनी शीघ्र धुंधला तो नही सकता न
मगर सभी कुछ बेरंग सा हो गया
वो आकस्मिक ह्रदय प्रफुल्लित करने वाली ऊर्जा
मानो लुप्त हो गयी कहीं
अब जाने का मन कर रहा है
कभी कभी
जब पलकों से यवनिका को दूर कर
दूर तक देखने की कोशिश करता हूँ
तो
एक अनकही सी
आशा झलकती है
इन अपरिचित मुखों पर
जो न जाने क्यों अपेक्षाएं जताती हैं
मन ही मन
एक मोह का सूत
मुझे फिर जकड लेने को
जैसे तैयार हो
लेकिन नहीं
अब थमना मेरा एकमात्र स्वप्न है
जाना चाहता हूँ
इन विषम परिस्थितियों के असत्य को
यही पर अधूरा छोड़कर
किसी ऊंचाई पर
जैसे कोई विशाल पर्वत
जहाँ केवल अविरल वायु का वेग हो
न किसी प्राणी
न किसी साधन
न ही किसी परिस्थिति का हस्तक्षेप हो
वहीं पर्वत से एक
रत्नवाहिनी रिस रिस कर
बह रही हो
वह पर एक वृक्ष तान से अडिग डटा हो
उसी के नीचे मैं लेटा रहूँ
उनकी गोद में
वो सनय-सनय मेरे केषों को
सुलझाते रहें
और मैं
वायु के साथ धारा के प्रवाह के एहसास को जीता रहूँ
और वो एकटक बोलते रहे
बोलते रहे
और मैं
सुनता रहूँ
सुनता रहूँ
"वो"
ये वो नहीं जो लग रहे हैं
ये तो कोई भी हो सकता है
क्योंकि
मेरा जीवन उन्मुक्त गगन की भांति है
जिसमें हर पक्षी का समान उड़ान का सम्पूर्ण अधिकार है
और फिर
बहुत से कणों की एकरूपता से
उनके समागम से
और उनके सानिध्य से ही तो मेरा अस्तित्व है

वो
जो मुझे सुकून दे
मुझे सुने
और मेरी निर्जनता के मध्य आकर
मुझसे झगड़े
कोई भी हो सकता है

क्योंकि किसी एक के लिए कुछ भी निर्धारित नहीं है

वो
वो भी हो सकते हैं
जिन्होंने बचपन से आज तक हर क्षण मेरा साथ दिया
जिन्हें आज भी केवल दो ही सवाल आते हैं
-खाना खाया??
-तबियत कैसी है??

वो भी हो सकते हैं
जिन्होंने बचपन से आजतक
हर गलती के लिए कान पकड़ कर डाँटा

वो भी हो सकती हैं
जो हमेशा कहती
-हमारे लिए क्या लाओगे??

वो भी हो सकते हैं
जो मेरे आदर्श हैं
जिनसे लड़ियाने का अधिकार केवल मेरा है
मगर
वो अपनी व्यस्तताओं के मध्य
मेरी प्राथमिकताओं को दर किनार चुके हैं

वो भी हो सकती है
जिसने
गृह-दहलीज की परिपाटी के बाहर
रेशम के सूत के अर्थ और महत्त्व थे

वो भी हो सकते है
जिन्होंने हमेशा मुझसे लड़ाई की
मुझसे परेशान हुए
मगर मेरा साथ नहीं छोड़ा

वो भी हो सकती है
जो जब जन्मी तब बोझ थी
मगर फिर धड़कन
जिसने मेरे वात्सल्य को जागृत किया

वो भी हो सकते है
जिनकी कदर मैंने कभी नहीं की
जिनके होने को
मैंने न होना समझा

वो भी हो सकती है
जिसने प्रथम बार मेरे अधरों का स्पर्ष कर
मेरे कोरे मन को दूषित किया

वो भी हो सकते है
जिन्होंने सिर्फ मुझसे प्रतिस्पर्धा की
मुझे प्रतिद्वंदी माना

या
वो भी
जो मेरी भावनाओ का
मेरी संवेदनाओं का आदर करती थीं
चाहे
अट्टाहास करते हुए ही सही

वो भी हो सकते है
जिन्होने जीवन में रंग भर दिए
सारी संवेदनाओं को जीवंत कर दिया
क्षितिज के सभी पट खोल दिए

वो भी हो सकते है
जिन्होंने हमेशा टोका
रोका
डांटा
पथ दर्शन कराये
और खूब सारा सिखाया

वो भी हो सकती है
जिसके लिए ख़ुशी के मायने मुझसे थे
स्वप्नों का आधार मुझसे था
जिसकी हर मुस्कान
हर त्यौहार मुझसे था
जिसके अश्रुओं से धड़कने मेरी थी

वो भी हो सकती है

जो कभी एक गुड़िया की भांति हमेशा मुझे सुनती रही
और मैं हमेशा उसे अनसुना करता रहा
हमेशा उसे समझने में उलझा रहा
मगर उसे समझ न सका
जो दुनिया की रौशनी को
बहुत ऊपर से पूरा देखना चाहती है

जो सिर्फ खुशिया ढूंढती रही
और मैं हमेशा टोकता रहा
जो निभाती रही
और मैं भगत रहा
कभी मार्ग रोककर
कभी उसका हृदय तोड़कर

जो सबकी परवाह करती रही
मगर मैंने उसकी परवाह न की
जो चाहती है
सब हो
आस-पास चाहे जैसे भी

जो हमेशा खुश रखती थी
मगर मैं उसे खुश रखना भूल गया

जो हमेशा कुछ नया करना चाहती थी
मगर पता नहीं छुपकर क्यों

जो बहुआयामी थी
जिसे सबने जंजीरों में बांधना चाहा

जो बेबाक थी
मगर अनजान थी खुद से

वो भी हो सकती है
जिसने नवीनतम एहसासों का परिचय दिया
संसार को
अपने रिश्तों को
मुझको
अदम्य वात्सल्य
अद्भुत समर्पण
अनगिनत अपेक्षाओं और शिकायतों का कोष
ह्रदय में प्रवाहित रक्त की भांति

वो भी हो सकती है
जिसे खुद पर भरोषा नहीं
पर दूसरों की बातों पर बहुत है

वो भी हो सकती है
जिन्हें ठोष नीर की बारिश में
नयन से नूपुर तक
द्रवित होना पसंद है

वो भी हो सकती है
जो मेरे लिए एक आदर्श है
विपरीत ऊर्जा का
प्रतिबिम्ब की भांति

या
वो भी हो सकते है
जो मुझपर न जाने क्यों
मुझसे अधिक विश्वास करते हैं

ये जो "वो " है न
कोई भी
हो सकता है

मगर उस वृक्ष के नीचे मेरी बातों में खो जाने से पहले
वो मुझे माफ़ कर पाए
मैंने तो खुद को माफ़ कर लिया है

क्या वो मुझे माफ़ कर सकते हैं ???

मुझे प्रतीक्षा है
उसी अविरल सरिता की अतुल्य ध्वनि के मध्य
किसी जुड़वाँ प्रतिबिम्ब की
किसी कनिष्ठ
या
किसी वरिष्ठ की
मेरे किसी झूठ की
किसी जीवित मांस की गुड़िया की
किसी परी की
किसी बारिश के साथी की
किसी भालू की
किसी छोटी बहिन की
किसी बिग बी की
किसी सागर के मंथन से निकले
रमणीय सूतो से बंधे
ख्वाबो के परिंदे की
किसी जान की
एक पुष्प गुच्छ की
जिसका हर पुष्प मुकुल की भांति
दिव्य अमृत से अंकुरित हो

क्योंकि जो घट रहा है
वो घट जायेगा
कंधराओ में भू-स्खलन की भांति सब
एक दिन बिखर जायेगा

आओगे न ???

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पर्वतों में प्रतीक्षारत
आपका कवि

Friday, 9 September 2016

अंतहीन अराजकता

सत्य के भय से
अराजकता का जन्म होता है
एक
अद्भुत अराजकता का
ये
वही है
जो कर्म को विभाजित करती है
खंड खंड करती है
दृढ़ निश्चय को
जो विचारों के सागर को
दूषित कर
नीर विहीन कर
पंक द्रव्य से परिपोषित कर देती है
जब ह्रदय
स्वयं को
प्रवाहित संसार के घाट पर
असमर्थ मान लेता है
प्रतिभाओं को
क्षमताओं को
अनेकों
कोशिषो को
निरर्थक मान लेता है

तब प्रारम्भ होती है
अराजक प्रतिक्रियाएं 

मेरी पराजय को ढंकने हेतु
आरम्भ होता है
दोषारोपण
एवं
प्रतिहास
उस व्यवस्था का
जो सब कुछ सही चलने तक सही थी
किन्तु
एक
क्षणिक विद्रोह से
विषयान्तर हो
गलत की श्रेणी में आ गयी

ये जो घटनाएं
अचानक से अप्रिय सी प्रतीत होती हैं
उसकी वजह कोई व्यवस्था नहीं
अपितु
मेरी स्वयं की
व्यावहारिक एवं मानसिक
अव्यवस्थायें हैं
जो
पराजय स्वीकार करने में असमर्थ हैं
और इसलिए अराजक है

और अपना बोध कराने हेतु
हिंसक
निरर्थक
अनैतिक
क्रिया कलापो में व्यस्त हैं

जिस से मूल कारण का निदान न हो
काल्पनिक तथ्यों का निर्माण हो

और मेरी खोखली साख बनी रहे
ये अराजकता
जो अद्भुत है
और विद्यमान है
मेरे ह्रदय से लेकर
मेरे हर रोमकूप में

ये अराजकता मुझे विशिष्ट रूप से
धरा के बहुत नीचे तक धकेलती जा रही है
और एक दिन
मेरी काया
ये सारी माया
एक छलावे की तरह
क्षणभंगुर की भांति
वायु में लुप्त हो जाएगी
तब अस्तित्व रह जायेगा तो केवल
इस
अंतहीन अराजकता का

जो हमारे अंदर हमें अलग करके रखती है
हमारे सत्य से
हमारे संकल्प से
हमारे विश्वास से
हमारी प्रयासरत रहने की तीव्र
महत्वकांक्षाओं से
क्योंकि
हम भी
स्वयं से अधिक
दूसरों के स्वप्न को महत्त्व देते हैं
तो
जो हमारा है
वो तो हो ही जायेगा न
किसी दुसरे की उपस्थिति में
असुरक्षित और
अराजक।।


.............................................................................
स्वयं की एक आख़री खोज
वो भी स्वयं में ..........

Monday, 5 September 2016

अद्भुत अराजकता

ये जो बाह्य संसार के, 
मेरे आरोप हैं 
भटकती, विस्मित 
अराजकता के स्रोत हैं 
सब छल हैं 
मेरे ह्रदय की 
कल्पनाओं से ग्रसित 
विक्षिप्त मनः स्थिति
के पूरक हैं 
अराजक कुछ भी नहीं 
इस मधुरम संसार में 
सभी कुछ मनोरम है 
रमणीय है 
मेरे अंतर्मन को छोड़ कर 
जिस व्यवस्था को 
अराजकता का दर्जा देकर 
मैं गौरवान्वित सा 
अपने वक्ष को चौड़ा महसूस करता रहा 
वो भी एक मिथ्या की छाया है 
क्योंकि 
इस व्यवस्था के प्रतिफल 
मेरा अस्तित्व विद्यमान है 
तो फिर 
इस प्रवाह में गतिमान नौका के 
रिसने का कारण क्या है 
इस ऊमस पूर्ण पवन के
द्रवित कणों का 
साधन क्या है 
अगर सब शुष्क है तो 
ये छिद्र जिससे नौका दोषारोपित है 
ये मेरे 
हाँ मेरे 
अंतर्मन द्वारा ही रोपित है 
स्वयं को उज्जवल, स्वच्छ 
वस्त्रों से ढांक 
अन्य के वस्त्रों को रंगने से 
कुछ भी सहिष्णु नहीं हो जायेगा 
सत्य को कोई नहीं परिवर्तित कर सकता 
हाँ 
उसको आंतरिक और व्यावहारिक 
दाबों के माध्यम से 
ओझल किया सकता है 
मगर सत्य 
सत्य रहता है 
और सत्य के भय से 
अराजकता का जन्म होता है 
एक 
अद्भुत अराजकता का 

............................................................................. to be continued
स्वयं की एक आख़री खोज
वो भी स्वयं में ..........

"अराजकता"

"अराजकता"

मैं सोचता था
ये मेरे चारों ओर
जो विद्यमान है
जो प्रश्न हैं
अनुभूतियाँ हैं
सब अराजक ही तो हैं
सारी व्यवस्थाएं
सारे लोग
सारी सुविधाएं
सारे भोग
सृष्टि का कण-कण
अम्बर की साड़ी वायु
सब कुछ अराजक ही तो है
क्योंकि
किसी भी पाषाण ह्रदय के पास
मेरे कल्पित
मासूम सी कुंठित
और विचलित आशंकाओं का
समाधान जो नहीं था
ये भी कोई व्यवस्था है
जहाँ हर रिश्ते में मतलब है
उम्र ढलने का प्रतीक्षा करती आँखों में
मृत्यु की अविरल स्वीकारोक्ति है
जहाँ प्रत्येक क्षण घुट कर मरते हुए
अनगिनत वादे हैं

ये व्यवस्था अपेक्षाओं से शुरू होकर
व्यापार में तब्दील हो जाती है
ये भी कोई व्यवस्था है
अराजकता है ये
भरोषे की
जो एक
मानवीय मानसिक विकृति से
ग्रसित हो
शिकायत करती है
अपनी ही कल्पनाओ से रचित
उस मायावी संसार की
जो उसे
सिर्फ दिलासा देता है
कि ये भी ढल जायेगा कल की भाँति
ये क्या है
अराजकता ही तो है
ये था मेरा असहिष्णु ज्ञान
जो अज्ञानता के प्रकाश से ओट-प्रोत हो
हावी था मुझ पर
एक अद्भुत
अदम्य भूचाल के आने से पहले तक
किन्तु अब
अब सत्य प्रत्यक्ष प्रदर्शित हो चुका है
अपने कोमल और बाल्य रूप में
निश्छल
निर्मोही
और
निर्भीक
............................................................................. to be continued
स्वयं की एक आख़री खोज
वो भी स्वयं में ..........