Saturday, 19 November 2016

Be Happy...

"I as all is a collection of mistakes
not smaller ones
but intensity of those is quite high
from childhood till date
got several opportunities to commit mistakes
several opportunities to make blunder
I use it fully
and created a heap of mistakes
never turned back and repeated them at several intervals
what i found today is when i went through my mistakes i found
whether they were unintentionally occurred or accidentally happened
But i accept it as it doesn't matter how it happened
but what really matters is that it happened
Anyways
Life had given countless opportunity to make mistakes
But never given a single opportunity to correct single of them
truly i said if anyone including me had given a single opportunity for that everyone wanted to correct it
so am I
but i am neither regretting nor repenting
But what it is
it is
Life cannot give me single opportunity to correct my mistakes
But i am giving myself a last opportunity to correct my mistakes
to correct myself
my soul
my voice
my attitude
even my identity
as who knows when it last forever
I am trying to forgive my self
can you too try to forgive me once
I know its not that much easy but try atleast once
not for you
not for us
but for me
i ask this for me
please
as
i enjoyed gazing you
i enjoyed caring you
i enjoyed loving you
i enjoyed pampering you
i enjoyed cuddling you
i enjoyed your smiles
i enjoyed your trusting you
i enjoyed your eyes
your lips
your hairs
your hugs
i lived kissing you
i lived with your tears
with your sorrows
with your pain
you entertained me with your gossips
your shopping
your relations
your emotions
your complaints
your expectations
you was there in every face
when you were far
you was in my smiles when you missed me
and
you was in my tears when i missed you
i scolded you
i shouted on you
i misbehaved you
sometimes
even i lied you
i hide from you
but what is the ultimate true is
that i cared for you
for your happiness
thus i will enjoy going away from you
i will enjoy missing you badly
i will enjoy dreaming of you
i will enjoy hurting you
as
ultimately i know this will make you the happiest person of the world
because what my love was failed to do
my false face will absolutely do
I know
Take care
will disappear with the fog and the smoke of your memories........."

Saturday, 1 October 2016

#Virginity Doesnt Exist..

#Adult Message.......
#Virginity Doesnt Exist..
Today's theory is
If U r a girl, (a sweetest innocent creature of the nature),
U should be and must be a "Virgin" until a Boy(BF, Husband) screw
nd
if u r a boy, (d masculine creature of nature)
Virginity doesnt exist 4 u..
What d hell..
Who d hell created this theory..
Who given this right 2 question about their virginity..
Whether a boyfrnd, husband or spcl frnd...
Nobody is authorized 2 ask d same..
What it is..
It doesnt exist 4 nyone..
Virginity means dat had u ever been tortured by sumone else b4 i did it..
Nd if u failed u r a ***.....
D man who think nd speaks so..
Should be ashamed of taking birth from a women's womb..
But somewhere these respected women r too responsible 4 d same..
When first time this concept was discovered nd questioned
"R u virgin..???"
That tym only if that lady slapped that man nd says R U??
It ended there only..
But no
later that
synonym transformed 2 stupidity nd question changed 2 could i trust u..
Ur virginity is my property or my right..etc etc..
2 hell with ur right nd ur property..
Dat mean a girl will alwys b d most beautiful nd wonderful creature of the nature 4 every eye nd heart..
So dont ask about her virginity as u r an eunuch 2 love her nd respect her..
Nd if u ask so..
Pls respect that nd let her b virgin..
So that she can answer thousands of ur type mistaken creatures..
A girl never ever required ur bullshit spcl provision..
If u r really virgin dear man giv her equal provision..
Then it will b proved who needs protection against being Virgin.. Thank U..
Sorry if hurted to anybody's soul... but its true from my side.. and I respect the same..

Sunday, 18 September 2016

तिरंगे की गोद में


हर सुबह मेरे आस-पास एक प्रश्न रहता है
मुझको अनेकों हिस्सों में
खंड खंड करने के बाद भी
क्या शांति नहीं मिली
इन अमानवीय इंसानों को
मेरे बच्चों को

जो हर क्षण
मेरी साँसों को
मेरे उतार-चढ़ाव को भी
छिन्न भिन्न कर देना चाहते हैं

लिए स्वप्न कुछ हसीन
मैं सो जाती हूँ
तिरंगे की गोद में
मगर हर सुबह जब उठती हूँ
तो ये लोग
जो मेरी संतानें हैं
रंग ले जाते हैं
तिरंगे से निकाल कर
और रह जाता है
मेरे मन सा
एक श्वेत कोरा कागज़

ये इंसान समझते क्यों नहीं
मुझे इनके आवरण से क्या
मेरा तो ह्रदय ही अशोक वृक्ष की भांति
हरा ही हरा है
उसमे सूर्य-किरणें पड़ते ही
केसरिया महक
सारे शरीर में
विस्तृत हो जाती है
कोई एक रंग ले जाने से
मेरा ह्रदय रुपी वृक्ष अधूरा हो जाता है

ये केसरिया मुझे शक्ति देता है
मजबूती देता है
मेरा मनोबल बढाकर
कभी हार नहीं मानने देता
हरा मेरी उर्वरता,
मेरी रचनात्मकता को जीवित रखता है
जो मेरी वृद्धि करने में
मेरा कल्याण करने में
मदद करता है
वहीं मेरा अत्यंत प्रिय
श्वेत
मुझे शांति देता है
सत्य में मेरा संबल बनाये सख्त है
मुझे हमेशा गौरवान्वित रखता है

और मेरा लाड़ला चक्र
मुझे प्रत्येक क्षण
अनुभूति कराता है
गति में
प्रवाहमान होने में ही जीवन है
वरन
स्थिरता एवं जड़ता
शव की भांति मृत्यु का प्रतीक है

किसी एक रंग से पूर्णता नहीं आएगी
सिर्फ आडंबरो और
अनैतिक अशांति की अस्थायी
आभा प्रतिपादित करती रहेगी
इनके मनों को
इसलिये

मेरे आवरण
मेरे आँचल का मान
इन तीनों रंगों को
साथ रखने से है

इनको बांटने से
मेरे अश्रु
मेरा ह्रदय
मेरी आत्मा
और
मेरा अस्तित्व
सब कुछ अधूरा रह जायेगा
----------------------------------------------------------------------
---------------------------------------------------------------------- एक उदासीन माँ

Saturday, 17 September 2016

वो खो गयी कहीं


कुछ रोज़ पहले
वो खुश थी बहुत
जैसे किसी शहज़ादी को
नगीना तराश कर पहनाया गया हो
महकती थी
साँसे भी उसकी
जैसे
मन के कोनों में
बगीचा लगाया हो
एक कशिश थी
उसके हर झूठे सच में
फ़नाह हो जाती थीं
फ़िज़ायें भी
उसके झूठे रस्क में
बेतरतीब जुनून था
उसकी अदायगी में
खो जाता था हर ज़र्रा
उसके ही नूर में
ख्वाहिशें तमाम उसकी
हसरत से बड़ी होती थीं
पर पसंद था अंदाज़ मुझको
उसका यूँ ख़ुद को
रवां करना
हर ख्वाहिश के लिए
उसका बिखर जाना
तवज्ज़ो ख़ुद की
ग़ैर से भी नीचे तगलीक करना
याद है अब भी मुझे
उसका मेरे लिए खुद को
रूह से बेवफ़ा करना
अब
वो दूर है
कोषों मुझसे
मग़र उसकी इबादत नहीं कम है
टूटकर बिखरे मोती सा
उसके और भी कद्रदान हैं अब तो
पर
नाफ़रमान शुरुआत उसकी
खुश नहीं रखती उसको
जानता हूँ
अब बेग़ैरत हूँ उसके लिए
जैसे नहीं होश रहता
साकी को जामो का
वैसे वो भी अब
अनजान है मेरे पैगामो से
मगर मुस्कुराहटों से
आज भी
उसकी कमियां दिखती हैं मुझे
आज भी उसे सच से डर लगता है
शायद अब भी
वो अंधेरो को पसंद करती है
उसको अब भी
रौशनी के बेफिक्राना होने का अंदाज़ 
नहीं अच्छा लगता शायद
वो खो गयी कहीं
जिसे मैं जानता और मानता था
क्योंकि
उड़ना सीख जाने से
इंसान परिंदा नहीं हो जाता
तुम सच को छुपा सकते हो
ऐ मेरे सित परों की शहज़ादी
मगर झुठला नहीं सकते
अफ़सोस ये नहीं
कि तेरा अक्स भी महरूम है मुझसे
तेरी झूठी हंसी
बनावटी दुनिया तेरी
मुझे बौना सा करती है
जो हाथ थाम मेरा
अंधेरों से बाहर आयी थी
वो खो गयी कहीं
वो खो गयी कहीं

------------------------------------------------------------------- तेरी ख़ुशी के इंतजार में.........

Sunday, 11 September 2016

पर्वतों में प्रतीक्षारत आपका कवि ..................

पर्वतों में प्रतीक्षारत
आपका कवि

कंधराओं और अविरल सरिता के मध्य

प्रतीत मानो ऐसा होने लगा है
जैसे किसी उपवन में
अनगिनत
कीट
कोमल पुष्पों का
नवीन साखों का
और कोपल से पत्रों का
भक्षण कर
अपने नियत कर्म के अन्तर्गत
अपनी क्षुधा शांत कर रहे हो
किन्तु
किसी एक का कर्म
किसी दुसरे के लिए आपदा भी हो सकता है
वैसे
इन कंदराओं की सुगंध
मंदाकनी में सूर्य की पावन छवि
और
अविरल मदमस्त बहती हुयी
अनगिनत वृक्षों से छनती हुयी पवन
मुझे प्रथम भेंट में ही आसक्त कर गयी थी
संभवतः
तब बात और थी
एक रंगों से भरे अद्भुत सुरम्य
संसार को आँखे मूंदकर
सिर्फ प्रकृति के पास चले आना
मेरा
मोह ही था कदाचित
वरन वह गुरुत्वाकर्षण
इस शांति का
इतनी शीघ्र धुंधला तो नही सकता न
मगर सभी कुछ बेरंग सा हो गया
वो आकस्मिक ह्रदय प्रफुल्लित करने वाली ऊर्जा
मानो लुप्त हो गयी कहीं
अब जाने का मन कर रहा है
कभी कभी
जब पलकों से यवनिका को दूर कर
दूर तक देखने की कोशिश करता हूँ
तो
एक अनकही सी
आशा झलकती है
इन अपरिचित मुखों पर
जो न जाने क्यों अपेक्षाएं जताती हैं
मन ही मन
एक मोह का सूत
मुझे फिर जकड लेने को
जैसे तैयार हो
लेकिन नहीं
अब थमना मेरा एकमात्र स्वप्न है
जाना चाहता हूँ
इन विषम परिस्थितियों के असत्य को
यही पर अधूरा छोड़कर
किसी ऊंचाई पर
जैसे कोई विशाल पर्वत
जहाँ केवल अविरल वायु का वेग हो
न किसी प्राणी
न किसी साधन
न ही किसी परिस्थिति का हस्तक्षेप हो
वहीं पर्वत से एक
रत्नवाहिनी रिस रिस कर
बह रही हो
वह पर एक वृक्ष तान से अडिग डटा हो
उसी के नीचे मैं लेटा रहूँ
उनकी गोद में
वो सनय-सनय मेरे केषों को
सुलझाते रहें
और मैं
वायु के साथ धारा के प्रवाह के एहसास को जीता रहूँ
और वो एकटक बोलते रहे
बोलते रहे
और मैं
सुनता रहूँ
सुनता रहूँ
"वो"
ये वो नहीं जो लग रहे हैं
ये तो कोई भी हो सकता है
क्योंकि
मेरा जीवन उन्मुक्त गगन की भांति है
जिसमें हर पक्षी का समान उड़ान का सम्पूर्ण अधिकार है
और फिर
बहुत से कणों की एकरूपता से
उनके समागम से
और उनके सानिध्य से ही तो मेरा अस्तित्व है

वो
जो मुझे सुकून दे
मुझे सुने
और मेरी निर्जनता के मध्य आकर
मुझसे झगड़े
कोई भी हो सकता है

क्योंकि किसी एक के लिए कुछ भी निर्धारित नहीं है

वो
वो भी हो सकते हैं
जिन्होंने बचपन से आज तक हर क्षण मेरा साथ दिया
जिन्हें आज भी केवल दो ही सवाल आते हैं
-खाना खाया??
-तबियत कैसी है??

वो भी हो सकते हैं
जिन्होंने बचपन से आजतक
हर गलती के लिए कान पकड़ कर डाँटा

वो भी हो सकती हैं
जो हमेशा कहती
-हमारे लिए क्या लाओगे??

वो भी हो सकते हैं
जो मेरे आदर्श हैं
जिनसे लड़ियाने का अधिकार केवल मेरा है
मगर
वो अपनी व्यस्तताओं के मध्य
मेरी प्राथमिकताओं को दर किनार चुके हैं

वो भी हो सकती है
जिसने
गृह-दहलीज की परिपाटी के बाहर
रेशम के सूत के अर्थ और महत्त्व थे

वो भी हो सकते है
जिन्होंने हमेशा मुझसे लड़ाई की
मुझसे परेशान हुए
मगर मेरा साथ नहीं छोड़ा

वो भी हो सकती है
जो जब जन्मी तब बोझ थी
मगर फिर धड़कन
जिसने मेरे वात्सल्य को जागृत किया

वो भी हो सकते है
जिनकी कदर मैंने कभी नहीं की
जिनके होने को
मैंने न होना समझा

वो भी हो सकती है
जिसने प्रथम बार मेरे अधरों का स्पर्ष कर
मेरे कोरे मन को दूषित किया

वो भी हो सकते है
जिन्होंने सिर्फ मुझसे प्रतिस्पर्धा की
मुझे प्रतिद्वंदी माना

या
वो भी
जो मेरी भावनाओ का
मेरी संवेदनाओं का आदर करती थीं
चाहे
अट्टाहास करते हुए ही सही

वो भी हो सकते है
जिन्होने जीवन में रंग भर दिए
सारी संवेदनाओं को जीवंत कर दिया
क्षितिज के सभी पट खोल दिए

वो भी हो सकते है
जिन्होंने हमेशा टोका
रोका
डांटा
पथ दर्शन कराये
और खूब सारा सिखाया

वो भी हो सकती है
जिसके लिए ख़ुशी के मायने मुझसे थे
स्वप्नों का आधार मुझसे था
जिसकी हर मुस्कान
हर त्यौहार मुझसे था
जिसके अश्रुओं से धड़कने मेरी थी

वो भी हो सकती है

जो कभी एक गुड़िया की भांति हमेशा मुझे सुनती रही
और मैं हमेशा उसे अनसुना करता रहा
हमेशा उसे समझने में उलझा रहा
मगर उसे समझ न सका
जो दुनिया की रौशनी को
बहुत ऊपर से पूरा देखना चाहती है

जो सिर्फ खुशिया ढूंढती रही
और मैं हमेशा टोकता रहा
जो निभाती रही
और मैं भगत रहा
कभी मार्ग रोककर
कभी उसका हृदय तोड़कर

जो सबकी परवाह करती रही
मगर मैंने उसकी परवाह न की
जो चाहती है
सब हो
आस-पास चाहे जैसे भी

जो हमेशा खुश रखती थी
मगर मैं उसे खुश रखना भूल गया

जो हमेशा कुछ नया करना चाहती थी
मगर पता नहीं छुपकर क्यों

जो बहुआयामी थी
जिसे सबने जंजीरों में बांधना चाहा

जो बेबाक थी
मगर अनजान थी खुद से

वो भी हो सकती है
जिसने नवीनतम एहसासों का परिचय दिया
संसार को
अपने रिश्तों को
मुझको
अदम्य वात्सल्य
अद्भुत समर्पण
अनगिनत अपेक्षाओं और शिकायतों का कोष
ह्रदय में प्रवाहित रक्त की भांति

वो भी हो सकती है
जिसे खुद पर भरोषा नहीं
पर दूसरों की बातों पर बहुत है

वो भी हो सकती है
जिन्हें ठोष नीर की बारिश में
नयन से नूपुर तक
द्रवित होना पसंद है

वो भी हो सकती है
जो मेरे लिए एक आदर्श है
विपरीत ऊर्जा का
प्रतिबिम्ब की भांति

या
वो भी हो सकते है
जो मुझपर न जाने क्यों
मुझसे अधिक विश्वास करते हैं

ये जो "वो " है न
कोई भी
हो सकता है

मगर उस वृक्ष के नीचे मेरी बातों में खो जाने से पहले
वो मुझे माफ़ कर पाए
मैंने तो खुद को माफ़ कर लिया है

क्या वो मुझे माफ़ कर सकते हैं ???

मुझे प्रतीक्षा है
उसी अविरल सरिता की अतुल्य ध्वनि के मध्य
किसी जुड़वाँ प्रतिबिम्ब की
किसी कनिष्ठ
या
किसी वरिष्ठ की
मेरे किसी झूठ की
किसी जीवित मांस की गुड़िया की
किसी परी की
किसी बारिश के साथी की
किसी भालू की
किसी छोटी बहिन की
किसी बिग बी की
किसी सागर के मंथन से निकले
रमणीय सूतो से बंधे
ख्वाबो के परिंदे की
किसी जान की
एक पुष्प गुच्छ की
जिसका हर पुष्प मुकुल की भांति
दिव्य अमृत से अंकुरित हो

क्योंकि जो घट रहा है
वो घट जायेगा
कंधराओ में भू-स्खलन की भांति सब
एक दिन बिखर जायेगा

आओगे न ???

......................................................................

पर्वतों में प्रतीक्षारत
आपका कवि

Friday, 9 September 2016

अंतहीन अराजकता

सत्य के भय से
अराजकता का जन्म होता है
एक
अद्भुत अराजकता का
ये
वही है
जो कर्म को विभाजित करती है
खंड खंड करती है
दृढ़ निश्चय को
जो विचारों के सागर को
दूषित कर
नीर विहीन कर
पंक द्रव्य से परिपोषित कर देती है
जब ह्रदय
स्वयं को
प्रवाहित संसार के घाट पर
असमर्थ मान लेता है
प्रतिभाओं को
क्षमताओं को
अनेकों
कोशिषो को
निरर्थक मान लेता है

तब प्रारम्भ होती है
अराजक प्रतिक्रियाएं 

मेरी पराजय को ढंकने हेतु
आरम्भ होता है
दोषारोपण
एवं
प्रतिहास
उस व्यवस्था का
जो सब कुछ सही चलने तक सही थी
किन्तु
एक
क्षणिक विद्रोह से
विषयान्तर हो
गलत की श्रेणी में आ गयी

ये जो घटनाएं
अचानक से अप्रिय सी प्रतीत होती हैं
उसकी वजह कोई व्यवस्था नहीं
अपितु
मेरी स्वयं की
व्यावहारिक एवं मानसिक
अव्यवस्थायें हैं
जो
पराजय स्वीकार करने में असमर्थ हैं
और इसलिए अराजक है

और अपना बोध कराने हेतु
हिंसक
निरर्थक
अनैतिक
क्रिया कलापो में व्यस्त हैं

जिस से मूल कारण का निदान न हो
काल्पनिक तथ्यों का निर्माण हो

और मेरी खोखली साख बनी रहे
ये अराजकता
जो अद्भुत है
और विद्यमान है
मेरे ह्रदय से लेकर
मेरे हर रोमकूप में

ये अराजकता मुझे विशिष्ट रूप से
धरा के बहुत नीचे तक धकेलती जा रही है
और एक दिन
मेरी काया
ये सारी माया
एक छलावे की तरह
क्षणभंगुर की भांति
वायु में लुप्त हो जाएगी
तब अस्तित्व रह जायेगा तो केवल
इस
अंतहीन अराजकता का

जो हमारे अंदर हमें अलग करके रखती है
हमारे सत्य से
हमारे संकल्प से
हमारे विश्वास से
हमारी प्रयासरत रहने की तीव्र
महत्वकांक्षाओं से
क्योंकि
हम भी
स्वयं से अधिक
दूसरों के स्वप्न को महत्त्व देते हैं
तो
जो हमारा है
वो तो हो ही जायेगा न
किसी दुसरे की उपस्थिति में
असुरक्षित और
अराजक।।


.............................................................................
स्वयं की एक आख़री खोज
वो भी स्वयं में ..........

Monday, 5 September 2016

अद्भुत अराजकता

ये जो बाह्य संसार के, 
मेरे आरोप हैं 
भटकती, विस्मित 
अराजकता के स्रोत हैं 
सब छल हैं 
मेरे ह्रदय की 
कल्पनाओं से ग्रसित 
विक्षिप्त मनः स्थिति
के पूरक हैं 
अराजक कुछ भी नहीं 
इस मधुरम संसार में 
सभी कुछ मनोरम है 
रमणीय है 
मेरे अंतर्मन को छोड़ कर 
जिस व्यवस्था को 
अराजकता का दर्जा देकर 
मैं गौरवान्वित सा 
अपने वक्ष को चौड़ा महसूस करता रहा 
वो भी एक मिथ्या की छाया है 
क्योंकि 
इस व्यवस्था के प्रतिफल 
मेरा अस्तित्व विद्यमान है 
तो फिर 
इस प्रवाह में गतिमान नौका के 
रिसने का कारण क्या है 
इस ऊमस पूर्ण पवन के
द्रवित कणों का 
साधन क्या है 
अगर सब शुष्क है तो 
ये छिद्र जिससे नौका दोषारोपित है 
ये मेरे 
हाँ मेरे 
अंतर्मन द्वारा ही रोपित है 
स्वयं को उज्जवल, स्वच्छ 
वस्त्रों से ढांक 
अन्य के वस्त्रों को रंगने से 
कुछ भी सहिष्णु नहीं हो जायेगा 
सत्य को कोई नहीं परिवर्तित कर सकता 
हाँ 
उसको आंतरिक और व्यावहारिक 
दाबों के माध्यम से 
ओझल किया सकता है 
मगर सत्य 
सत्य रहता है 
और सत्य के भय से 
अराजकता का जन्म होता है 
एक 
अद्भुत अराजकता का 

............................................................................. to be continued
स्वयं की एक आख़री खोज
वो भी स्वयं में ..........

"अराजकता"

"अराजकता"

मैं सोचता था
ये मेरे चारों ओर
जो विद्यमान है
जो प्रश्न हैं
अनुभूतियाँ हैं
सब अराजक ही तो हैं
सारी व्यवस्थाएं
सारे लोग
सारी सुविधाएं
सारे भोग
सृष्टि का कण-कण
अम्बर की साड़ी वायु
सब कुछ अराजक ही तो है
क्योंकि
किसी भी पाषाण ह्रदय के पास
मेरे कल्पित
मासूम सी कुंठित
और विचलित आशंकाओं का
समाधान जो नहीं था
ये भी कोई व्यवस्था है
जहाँ हर रिश्ते में मतलब है
उम्र ढलने का प्रतीक्षा करती आँखों में
मृत्यु की अविरल स्वीकारोक्ति है
जहाँ प्रत्येक क्षण घुट कर मरते हुए
अनगिनत वादे हैं

ये व्यवस्था अपेक्षाओं से शुरू होकर
व्यापार में तब्दील हो जाती है
ये भी कोई व्यवस्था है
अराजकता है ये
भरोषे की
जो एक
मानवीय मानसिक विकृति से
ग्रसित हो
शिकायत करती है
अपनी ही कल्पनाओ से रचित
उस मायावी संसार की
जो उसे
सिर्फ दिलासा देता है
कि ये भी ढल जायेगा कल की भाँति
ये क्या है
अराजकता ही तो है
ये था मेरा असहिष्णु ज्ञान
जो अज्ञानता के प्रकाश से ओट-प्रोत हो
हावी था मुझ पर
एक अद्भुत
अदम्य भूचाल के आने से पहले तक
किन्तु अब
अब सत्य प्रत्यक्ष प्रदर्शित हो चुका है
अपने कोमल और बाल्य रूप में
निश्छल
निर्मोही
और
निर्भीक
............................................................................. to be continued
स्वयं की एक आख़री खोज
वो भी स्वयं में ..........

Tuesday, 3 May 2016

प्रिय ग्रीष्म


प्रति ग्रीष्म ऋतु ,
आपके आने का संकेत मुझे पिछले माह ही मिल गया था। मगर अपनी व्यस्तताओं के चलते मैं आपके स्वागत की तैयारियाँ नहीं कर सका। क्षमा !!!
अभिनन्दन
वंदन
स्वागत
आपके आने से मुझे बहुत ही प्रसन्नता होती है। मन जैसे प्रफुल्लित हो जाता है। सारे रोमकूप में जैसे नयी सी ऊर्जा का संचार होता है। आपको याद है जब हम छोटे थे और तो आपके आने से हमें कितने सारे लाभ होते थे। पाठशाला का अवकाश हो या फिर प्रियदर्शनी का समय सब कुछ आपसे ही निर्धारित होता था। वो गृहकार्य का बोझ भी आपके आने से हल्का प्रतीत होता था। आपके कारन हमें चश्मे, टोपियां और नए नए गमछे खरीदने का भी मौका मिल जाया करता था।
तब बात और थी
कंचों का दौर, गिल्ली डंडा, छुपनी डीप , बरफ-पानी, चीठा(कौंडि), कैरम, सांप-सीढ़ी जैसे और न जाने कितने खेल आपकी ही सौगात थे। इन सब से भी मन नहीं भरता था तो कुल्फी, आइस गोला, गन्ने का रस, आम का पना, मठा और लस्सी से आपके साथ समय बिताया करते थे।
सबसे बड़ा उपहार जो आप हमें देते थे वो था - ग्राम भ्रमण।।।
अति रमणीय, मनमोहक
वाह गांव जाने के लिए हमें साल भर आपका इंतजार करना पड़ता था। नानी -दादी की नई-नई रेसिपीज़ ट्राई करने मिलती थी। आम के बगीचे में जाकर कच्चे आम की केरियां तोडना और शाहेँ चूस चूस के पूरे कपडे आम से भिगो लेना। पूरी दोपहर बैठकर पापड़ बनवाना तो धीरे से कच्ची लोई टेस्ट करना। और लाइट गोल हो जाये तो अंताक्षरी खेलना और कोई डाँट  दे तो बिजना ढूँढना, न खुद सोना न किसी को सोने देना।
पता है ग्रीष्म जी तब जब आते थे तो आपसे डर नहीं लगता था बल्कि एक बड़ा सा लगाव था आपसे कि आपके कारण इतनी सारी खुशियाँ मिलती हैं।
फिर समय के साथ आपके तेवर ही बदल गए। अब तो आप कभी भी जाते हो तो हम तय ही नहीं कर पाते कुछ। और तो और अब आपसे डरना पड़ता है, कितनी सारी तरल क्रीम लगानी पड़ती हैं क्योंकि आपसे जलन होती है अब आप तो अपने हिसाब से कभी भी आ जाते हो। लेकिन हम अपने हिसाब से कहीं नहीं जा सकते।
न अब आम की कच्ची केरियां मिलती हैं , न ही वो कुल्फी। अब तुम्हारे कारन कोई अंताक्षरी खेलने वाला भी नहीं है।
खैर कोई बात नहीं , आप आये इस बात की ख़ुशी है मुझे। आज हम, वो गाँव की गलियाँ, आम की केरियां और बूढ़ी आँखे आपका इन्तजार करें न करें।
कुछ डोरेमोन मस्तियाँ, 10-12 किलो की बुक्स का होमवर्क और असाइनमेंट, कैंडी क्रश के बहुत सारे लेवल, बहुत सारी शादियों के स्टेज और बहुत सारे लुभावने 3G पैक्स आपका बेसब्री से इंतजार करते हैं।
ग्रीष्म जी अपना ख्याल रखिएगा और थोड़ा कूल रहिएगा वैसे भी आज कल लोगों के बीच में काफी गर्मी है।

आपकी विटामिन D का सबसे बड़ा FAN
अभिषेक

Thursday, 7 April 2016

अब तो मान जाओ............

कल शाम ऑफिस के बाद उसने कहा चलो न आज कहीं चलते हैं- पहले जैसे, मगर मैं भी अपनी ज़िद पर कायम रहा और इशारों में  मना करता रहा। मगर वो भी कहाँ मानने वाली थी। आखिर ये ज़िद करना मैंने उसी से सीखा था। वो लगातार मुझे घूरती रही ठीक उसी तरह जैसे कोई अधरों को शांत करने के लिए मृगमरीचिका को भी यथार्थ मान उसकी तरफ दौड़ता है। 
आखिर में उसकी ज़िद के आगे मैं हार ही गया। अपना काम खत्म करके मैं उसके साथ निकल गया। बहुत लम्बे समय बाद हम इस तरह की वॉक पर निकले थे। लेकिन इस बार हमारे बीच कोई संवाद नहीं थे। मैं उस से नाराज़ जो था। लेकिन उसकी कोई गलती नहीं थी। बस मेरी ज़िद थी उस से दूर रहने की। 
आज मैं उसे सुन रहा था, उसकी आँखों में  अजीब सी बेचैनी को महसूस किया मैंने। कभी वो मेरे हाथ को थामती, कभी लड़ने लगती मगर मैं निढाल सा संवेदना रहित उसको सुनता रहा। कभी खीझ में उसका हाथ झटक देता तो कभी आँख दिखाकर उसे शांत रहने को कहता। 
मगर वो भी मुझसे भलीभांति परिचित होने के कारण बस मुस्कुरा देती। 
हम चलते चलते मन्दाकिनी के पास पहुंचे, जहाँ उसने बहते हुए अविरल जल के साथ अटखेलिया शुरू कर दी और मेरे जल-प्रेम को आमंत्रित लगी। 
मगर मैं भी ठीठ, प्रतिक्रिया हीन ही व्यवहार करता रहा। 
कभी वो घर लौटती चिरैय्या की मधुर तान देती, तो कभी डूबते सूरज की लालिमा को वृक्षों से छानकर मुझे छू रही उसकी शीतलता का बखान करती। 
फिर भी मुझे शांत देख आँखों में आंसू लिए बस इतना कहती - अब तो मान जाओ..........
और मैं अपनी ज़िद को प्राथमिकता देते हुए मुंह फेर लेता। 
उसकी आँखों में कई बार मैंने आद्रता को महसूस तो किया, मगर उसने बहुत ही प्यार से मेरे नयनो को अपनी निष्कपट मुसकान की ओर प्रेषित कर लिया। 
क्योंकि मैं जानता हूँ की वही तो मेरी ताकत है, मेरे साहस का, सकारात्मकता की ऊर्जा का स्त्रोत है।  फिर उसे भी पता है कि  नेत्र-जल मेरी कमजोरी हैं और  ज़िद को अपने प्रेम से तोडना चाहती थी कमजोर करके नहीं। 
उसकी इस द्रव्यता से मैं परिचित था इसलिए मैं क्षण भर के लिए भी द्रवित नहीं हुआ। उसने चाँद को अम्बर पर चलते हुए देखकर चाँद की खूबसूरती, उसकी शीतलता और उसके अभिन्न स्वरुप का बखान करना शुरू किया कि शायद वो मेरे दम्भ को जलन से डिगा सके। उसकी कपकपाती होठों के पीछे के दर्द से अभी भी बस वो यही कह रही थी-अब तो मान जाओ..........
मगर मैं अब भी शांत था। अब मेंढकों की, झींगुरों की, बहती हुयी हवा की, गिरते हुए निर्मल जल की और बढ़ती हुयी काली रात की धीमी धीमी मीठी आवाज़ को वो मुझ तक दुहाई दे दे कर मनाने की कोसिस कर रही थी। अपनी खुली हुयी लटाओं से भी वो वृक्ष की लताओं का तुलनात्मक गुणगान कर रही थी। आखिर में वो हार मानते हुए बोली - तुम्हे कुछ नहीं कहना तो मत कहो मगर मुस्कुरा तो दो, फिर पक्का तंग नहीं करुँगी। 
मगर मेरे नेत्रो की दृढ़ता और मेरे ह्रदय की अस्थिरता मैंने उस पर बिलकुल न हावी होने दी और वापस चलने का इशारा करते हुए नदी से पैर निकालकर उठ खड़ा हो गया। 
वो भी और परेशान न करते हुए मेरे हाथ का सहारा लेते हुए नदी से बाहार आ गयी और हम वापस आने लगे। 
इस बार ज्यादा सन्नाटा था, अब वो भी दुखी थी और अपने आपके हारने से ज्यादा मुझे न मना पाने के भारी बोझ के साथ धीरे-धीरे चल रही थी। 
जाते जाते मैंने सिर्फ इतना कहा - अपना ख्याल रखना। 
वो बोली - वो तो तुम रखते हो न?
मैंने भी कह दिया - अब आदत डाल लो, क्योंकि अब मैं नहीं रख पाउँगा। 
उसने मेरा हाथ कसकर थाम लिया और बोली - पक्का ? आँखों में आँखे डालकर कहो..... 
मैं भी उसके पास गया और उसकी आँखों में अपनी आँखों को गडा कर कह दिया - हाँ पक्का, अब थोड़ा व्यस्त रहने लगा हूँ, तुम्हारे लिए समय नहीं निकाल पाउँगा।
वो भी मुस्कुराते हुए बोली -  ठीक है मैं इन्तजार करुँगी तुम्हारी व्यस्तता के खत्म होने तक। और तुम बस मान जाओ, बाकी मुझे फांसी भी मंजूर..... 
इतना कहते ही उसकी आँखों से आंसू निकल ही आये..... 
मैंने उसका हाथ झटका और अपने रस्ते चलने लगा, मेरी धड़कने भी तेज थी, आँखे लाल हो रही थी कि उसको मैं किस बात की सजा दे रहा हूँ। 
जब की संसार में वही तो है जो मुझे मेरे जीवन की तृष्णा को शांत करने में सम्बल देती है। आज भी मेरी अस्थिर परिस्थितियों के साथ सामंजस्य बैठाने में प्रोत्साहित कर रही है। मगर मैं भी निर्णय ले चूका था अब नहीं......... 
इतने वो दौड़ती हुयी मेरे पास आई और बोली - संसार में काबिल बनने की प्रतिस्पर्धा में ये मत भूल जाना की प्रेम में कोई पात्रता नहीं होती। तुम खुस रहो चाहे जहां रहो बस यही महत्त्वपूर्ण है। समझे...... 
मैंने भी कह दिया - सब समझता हूँ तुम्हारी चिकनी चुपड़ी बाते बस हम कभी नहीं मिलेंगे, अब तुम जाओ.........
वो भी बोल दी - ठीक है नहीं मिलेंगे और मुस्कुराते हुए बोली अब तो मान जाओ............

और इस तरह मेरी कविता हवाओं के साथ मेरे हाथो से रेत की तरह फिसलते हुए कहीं गम हो गयी......... 

Tuesday, 29 March 2016

चिंतन........

बड़ी मज़ेदार बात है न कि हम अपनी जीवन का 80 प्रतिशत समय केवल चिंतन करने में व्यर्थ कर देते हैं। जबकि हम सबको पता है
चिंता ऐसी दाकिनि, काट कलेजा खाये
वैद्य बेचारा क्या करे, कहाँ तक दवा लगाए
अर्थात कबीर जी ने कहा है की इस संसार में कुछ भी स्थाई नहीं है। सब कुछ क्षणभंगुर की तरह कभी भी नष्ट हो सकता है। फिर भी हम चिंता करके स्वयं को, अपने समय को व्यासरथ करते हैं। अरे 80 प्रतिशत यदि जीवन में आप 25 प्रतिशत भी सदुपयोग कर ले तो बाकी 55 प्रतिशत अपने आप बच जायेगा चिंतन से।
आप खुद सोचिये की क्या कभी सोचने से कोई कार्य सिद्ध हुआ है?
मुझे तो नहीं लगता
वैसे भी 95 प्रतिशत लोगो का तो यही मानना है न
कि सब कुछ जो कुछ भी घट रहा है
पूर्व-निर्धारित पूर्व-नियोजित है
तो फिर चिंतन व्यर्थ ही हुआ न
जीवन में जब सब कुछ पहले से ही तय है तो सोच-सोच कर अपना समय क्यों नष्ट कर रहे हैं
मैं ऐसा नहीं मानता
मेरे विचार और मेरा मत बिलकुल विपरीत है इस सन्दर्भ में
मेरा मानना है
नियति एक छलावा है
स्वयं को और स्वयं की असमर्थताओं को ढंकने का
क्यूंकि हम चिंतन करके ये निर्धारित करते हैं
कि
काश ऐसा हुआ होता
काश ऐसा कर लेते
सब पता था फिर भी गलती हो गई
इत्यादि.........
वरन
ऐसा नहीं है
हम असक्षम थे
परिस्थितयो को भांप नहीं पाये
उनके अनुकूल अपने आपको तत्पर प्रस्तुत नहीं कर पाए
और इसको स्वीकार करने की जगह हम चिंतन से शुरू करते हैं
दूसरों को अपनी असमर्थताओं के लिए जिम्मेदार ठहराने का दौर
मगर ये सच है
चिंतन सिर्फ एक छलावा है
जो ये साबित करता है
कि आपमें कार्य करने लायक प्रतिभा नहीं है, आपकी मनः स्थिति आपको हर क्षण मानने के लिए प्रेरित करती है
इसलिए अपने जीवन के बहुमूल्य 80 प्रतिशत समय को बचाते हुए
चिंतन से दूर रहे....
नियति पर आश्रित न रहे
नियति का निर्माण करे
क्यूंकि
जो बीत गया
वो आप चाहे कितने भी प्रयत्न कर ले
पर उसको बदल नहीं सकते
जो आप बदल सकते हैं
वो है आने वाला समय
किन्तु उसके लिए भी आपको
आज का सृजन नीतिपूर्वक करना होगा.........

Monday, 21 March 2016

अलविदा Facebook...


हाय फेसबुक
26/12/2010
हाँ यही वो तारीख है
जब पहली बार
तुमसे मेरा सामना हुआ था
दीपक ने ही तुमसे रूबरू होकर
तुम्हे अपनाने की सलाह दी थी
वरना
मैं तो Orkut में ही बहुत खुश था
मैं बहुत शुक्रगुज़ार हूँ
की तुमने मुझे एक
ज़रिया दिया
अपनी बात लोगों तक पहुचाने का
देर-सबेर अपनों से जुड़ने का
Thank You
उन दिनों मैं Sagar में था
जब तुम्हारा क्रेज़ चरम पर था
तब school friends को सर्च करना
मेरी पहली priority थी
धीरे धीरे मैं तुम में रम गया
और तुम्हारा हो गया
दिनभर स्टेटस डालना
राजनीति, धर्म और शोषण को
उजागर करने और लड़ने का
जैसे बीड़ा ले रखा हो
हफ्ते में 3-4 बार
Profile Picture चेंज करना
जैसे आम बात थी
मुझे आज भी याद है
BME का पेपर था
और मैंने लगातार
तुम्हारे साथ 28 घंटे बिताये थे
ये सब तो बहुत पुरानी बाते हैं
मगर तुमसे बहुत सारी यादें जुडी हैं
जैसे राहतगढ़ की Dust-Bin वाली Photo
wo रोज़ रोज़ का मुझे ब्लॉक करवा देना
सब तुम्हारी चाल थी न??
जनता हूँ मैं
मेरी साड़ी poems
भले बिना सर-पैर की होती थी
तुमने हमेशा उसे दूसरों को सुनाया है
Thanx
मगर Facebook
बीते कुछ दिनों तुमने
एक और एहसास कराया
एक सच
की तुम
तुम नहीं हो
बहुत उलझन में था उस दिन
जब तुम्हारे पास आया था
मगर तुम
जो की सिर्फ एक
छलावा हो
इस दुनिया के दर्द से दूर भागने का
उस दिन भी बस
मुझे दिलासा दे रहे थे
कि
मैं अपनी उलझनों को प्रदर्शित कर दूँ
मगर
मैं औरो की तरह
तुम्हारे इस N/W में 
हाँ-हाँ जाल में
फसने वाला नहीं
समझे न
तुम एक झूठ हो
जिसे सब अपनाना चाहते हैं
क्यूंकि सबको पता है
वास्तविकता बहुत भयावह
और अराजक सी है
और तुम्हारा काल्पनिक संसार
उन्हें कुछ पलो का
सुकून देता है
एक उम्मीद देता है
एक खुसी देता है
मगर सब झूठ
अरे
तुम्हारा वजूद
और अस्तित्व ही क्या
जो मुझे जानते हैं
वो जानते हैं
की तुमसे बड़ा झूठ हूँ मैं
अरे लोग तो
मुझे pinch करके चेक करते हैं
की मैं हूँ भी या नहीं
तो फिर
इसलिए मैं जा रहा हूँ
हमेशा हमेशा के लिए
तुमसे दूर
झूठ से दूर
कल्पनाओं और भ्रम से दूर
एक सच के लिए
जहाँ
मुझसे नफरत करने वाले
मेरी आँखों में आँखे डालकर
कह सकेंगे
तुम बहुत बड़े चूतिया हो
उन्हें तुम्हारे कारण
झूठ नहीं बोलना पड़ेगा
जहा
मुझे तुम्हारे
notification का आदि नहीं होना पड़ेगा
अपनों का जन्मदिन याद रखने के लिए
मैंने समझ लिया
डूबने के बाद ही सही
की इंतज़ार करना बेकार है
यदि आग है
तो अंदर है
तुम सिर्फ छलावा हो
ढोंग हो
एक झूठ हो
दुआ करना मुलाक़ात न हो
क्योंकि हुयी
तो फिर तुम्हे मेरी जरुरत होगी
मुझे तुम्हारी नहीं
bye bye
अलविदा Facebook...
                                              -अभिषेक (King Of Hearts)

Saturday, 19 March 2016

अजीब बँटवारा...........


धरती को खंड-खंड करके 
कई हिस्सों में बाँट दिया 
कुछ हमने रखा 
कुछ आपने ले लिया 
मेरी धरती पे 
हरियाली बहुत है 
और 
आपकी पे केसर 
मेरी धरती पे 
उमीदो की रौशनी बहुत है 
और आपकी पे 
ख़ामोशी की ठंडक 
आपकी धरती पे 
जब बरसात होती है 
तो कीचड होता  है??
लोग कहते हैं 
हमारे यहाँ नहीं होता 
मेरी धरती पे 
सूरज ज्यादा रौशनी करता है 
सुना है 
आपसे तो
वो बहुत चिढ़ता है 
हवा भी
भेद-भाव करती होगी आपसे 
हमारे यहाँ
बहुत ज्यादा बहती है क्यूंकि 
पता नहीं 
और क्या क्या अंतर है 
आपकी और मेरी धरती में 
मगर 
मेरी धरती पे 
रहने वाले 
आदमी नहीं 
आदमखोर हैं 
ठीक आपकी धरती के 
लोगों की तरह 
जिन्हें अपने स्वार्थ के लिए 
मैंने 
कभी राजनीति का 
तो 
कभी धर्म का 
चोला पहने 
आदमियों का 
उनकी संवेदनाओं का 
और उनकी परिस्थितियों का 
भक्षण कर रहे हैं 
धरती को विभाजित हुए 
वर्षों हो गए 
अब तो ये आदमखोर 
बस इसके आदमियों के 
टुकड़े कर रहे हैं............
                                                    -आक्रोशित कवि (अभिषेक)