हे कवि श्रेष्ठ
व्याकुल हूँ
बीते दिवस की रात्रि के द्वितीय पहर से
तुम्हारी गरिमा
तुम्हारी आभा
कांति सारी बखान करती है
किन्तु
मेरी व्याकुलता
तुम्हारी उत्सुकता से
जैसे अनजान पड़ती है
ह्रदय को आद्र वस्त्र की तरह
पूरा निचोड़ने पर
यही निष्कर्ष प्राप्त होता है
कि
तुम्हारी कल्पना से
तुम्हारी अद्वितीय रचना से
वास्तविकता को झुठलाया नहीं जा सकता
मन को प्रसन्न कर
क्षण भर के लिए
शूलों को ह्रदय से लगाया नहीं जा सकता
रच लो तुम आहार अनेक
कोटि जतन करके भी
जठराग्नि को बुझाया नहीं जा सकता
सामाजिक सरोकार से पूर्ण
कर लो सारे कर्त्तव्य तुम्हारे
किन्तु
परिवार का बोध
जीवन से झुठलाया नहीं जा सकता
बेटी कि खुसियो के लिए
घोडा बनना ही पड़ता है
कविताओ से
रचनाओ से
कल्पनाओ से
उसके प्रेम को
उसके स्नेह को
उसके बचपन को
हरगिज मनाया नहीं जा सकता
हे कवि श्रेष्ठ
तुम्हारी कल्पना से
तुम्हारी अद्वितीय रचना से
वास्तविकता को झुठलाया नहीं जा सकता
utsahi
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