बड़ी मज़ेदार बात है न कि हम अपनी जीवन का 80 प्रतिशत समय केवल चिंतन करने में व्यर्थ कर देते हैं। जबकि हम सबको पता है
चिंता ऐसी दाकिनि, काट कलेजा खाये
वैद्य बेचारा क्या करे, कहाँ तक दवा लगाए
अर्थात कबीर जी ने कहा है की इस संसार में कुछ भी स्थाई नहीं है। सब कुछ क्षणभंगुर की तरह कभी भी नष्ट हो सकता है। फिर भी हम चिंता करके स्वयं को, अपने समय को व्यासरथ करते हैं। अरे 80 प्रतिशत यदि जीवन में आप 25 प्रतिशत भी सदुपयोग कर ले तो बाकी 55 प्रतिशत अपने आप बच जायेगा चिंतन से।
आप खुद सोचिये की क्या कभी सोचने से कोई कार्य सिद्ध हुआ है?
मुझे तो नहीं लगता
वैसे भी 95 प्रतिशत लोगो का तो यही मानना है न
कि सब कुछ जो कुछ भी घट रहा है
पूर्व-निर्धारित पूर्व-नियोजित है
तो फिर चिंतन व्यर्थ ही हुआ न
जीवन में जब सब कुछ पहले से ही तय है तो सोच-सोच कर अपना समय क्यों नष्ट कर रहे हैं
मैं ऐसा नहीं मानता
मेरे विचार और मेरा मत बिलकुल विपरीत है इस सन्दर्भ में
मेरा मानना है
नियति एक छलावा है
स्वयं को और स्वयं की असमर्थताओं को ढंकने का
क्यूंकि हम चिंतन करके ये निर्धारित करते हैं
कि
काश ऐसा हुआ होता
काश ऐसा कर लेते
सब पता था फिर भी गलती हो गई
इत्यादि.........
वरन
ऐसा नहीं है
हम असक्षम थे
परिस्थितयो को भांप नहीं पाये
उनके अनुकूल अपने आपको तत्पर प्रस्तुत नहीं कर पाए
और इसको स्वीकार करने की जगह हम चिंतन से शुरू करते हैं
दूसरों को अपनी असमर्थताओं के लिए जिम्मेदार ठहराने का दौर
मगर ये सच है
चिंतन सिर्फ एक छलावा है
जो ये साबित करता है
कि आपमें कार्य करने लायक प्रतिभा नहीं है, आपकी मनः स्थिति आपको हर क्षण मानने के लिए प्रेरित करती है
इसलिए अपने जीवन के बहुमूल्य 80 प्रतिशत समय को बचाते हुए
चिंतन से दूर रहे....
नियति पर आश्रित न रहे
नियति का निर्माण करे
क्यूंकि
जो बीत गया
वो आप चाहे कितने भी प्रयत्न कर ले
पर उसको बदल नहीं सकते
जो आप बदल सकते हैं
वो है आने वाला समय
किन्तु उसके लिए भी आपको
आज का सृजन नीतिपूर्वक करना होगा.........