Tuesday, 29 March 2016

चिंतन........

बड़ी मज़ेदार बात है न कि हम अपनी जीवन का 80 प्रतिशत समय केवल चिंतन करने में व्यर्थ कर देते हैं। जबकि हम सबको पता है
चिंता ऐसी दाकिनि, काट कलेजा खाये
वैद्य बेचारा क्या करे, कहाँ तक दवा लगाए
अर्थात कबीर जी ने कहा है की इस संसार में कुछ भी स्थाई नहीं है। सब कुछ क्षणभंगुर की तरह कभी भी नष्ट हो सकता है। फिर भी हम चिंता करके स्वयं को, अपने समय को व्यासरथ करते हैं। अरे 80 प्रतिशत यदि जीवन में आप 25 प्रतिशत भी सदुपयोग कर ले तो बाकी 55 प्रतिशत अपने आप बच जायेगा चिंतन से।
आप खुद सोचिये की क्या कभी सोचने से कोई कार्य सिद्ध हुआ है?
मुझे तो नहीं लगता
वैसे भी 95 प्रतिशत लोगो का तो यही मानना है न
कि सब कुछ जो कुछ भी घट रहा है
पूर्व-निर्धारित पूर्व-नियोजित है
तो फिर चिंतन व्यर्थ ही हुआ न
जीवन में जब सब कुछ पहले से ही तय है तो सोच-सोच कर अपना समय क्यों नष्ट कर रहे हैं
मैं ऐसा नहीं मानता
मेरे विचार और मेरा मत बिलकुल विपरीत है इस सन्दर्भ में
मेरा मानना है
नियति एक छलावा है
स्वयं को और स्वयं की असमर्थताओं को ढंकने का
क्यूंकि हम चिंतन करके ये निर्धारित करते हैं
कि
काश ऐसा हुआ होता
काश ऐसा कर लेते
सब पता था फिर भी गलती हो गई
इत्यादि.........
वरन
ऐसा नहीं है
हम असक्षम थे
परिस्थितयो को भांप नहीं पाये
उनके अनुकूल अपने आपको तत्पर प्रस्तुत नहीं कर पाए
और इसको स्वीकार करने की जगह हम चिंतन से शुरू करते हैं
दूसरों को अपनी असमर्थताओं के लिए जिम्मेदार ठहराने का दौर
मगर ये सच है
चिंतन सिर्फ एक छलावा है
जो ये साबित करता है
कि आपमें कार्य करने लायक प्रतिभा नहीं है, आपकी मनः स्थिति आपको हर क्षण मानने के लिए प्रेरित करती है
इसलिए अपने जीवन के बहुमूल्य 80 प्रतिशत समय को बचाते हुए
चिंतन से दूर रहे....
नियति पर आश्रित न रहे
नियति का निर्माण करे
क्यूंकि
जो बीत गया
वो आप चाहे कितने भी प्रयत्न कर ले
पर उसको बदल नहीं सकते
जो आप बदल सकते हैं
वो है आने वाला समय
किन्तु उसके लिए भी आपको
आज का सृजन नीतिपूर्वक करना होगा.........

Monday, 21 March 2016

अलविदा Facebook...


हाय फेसबुक
26/12/2010
हाँ यही वो तारीख है
जब पहली बार
तुमसे मेरा सामना हुआ था
दीपक ने ही तुमसे रूबरू होकर
तुम्हे अपनाने की सलाह दी थी
वरना
मैं तो Orkut में ही बहुत खुश था
मैं बहुत शुक्रगुज़ार हूँ
की तुमने मुझे एक
ज़रिया दिया
अपनी बात लोगों तक पहुचाने का
देर-सबेर अपनों से जुड़ने का
Thank You
उन दिनों मैं Sagar में था
जब तुम्हारा क्रेज़ चरम पर था
तब school friends को सर्च करना
मेरी पहली priority थी
धीरे धीरे मैं तुम में रम गया
और तुम्हारा हो गया
दिनभर स्टेटस डालना
राजनीति, धर्म और शोषण को
उजागर करने और लड़ने का
जैसे बीड़ा ले रखा हो
हफ्ते में 3-4 बार
Profile Picture चेंज करना
जैसे आम बात थी
मुझे आज भी याद है
BME का पेपर था
और मैंने लगातार
तुम्हारे साथ 28 घंटे बिताये थे
ये सब तो बहुत पुरानी बाते हैं
मगर तुमसे बहुत सारी यादें जुडी हैं
जैसे राहतगढ़ की Dust-Bin वाली Photo
wo रोज़ रोज़ का मुझे ब्लॉक करवा देना
सब तुम्हारी चाल थी न??
जनता हूँ मैं
मेरी साड़ी poems
भले बिना सर-पैर की होती थी
तुमने हमेशा उसे दूसरों को सुनाया है
Thanx
मगर Facebook
बीते कुछ दिनों तुमने
एक और एहसास कराया
एक सच
की तुम
तुम नहीं हो
बहुत उलझन में था उस दिन
जब तुम्हारे पास आया था
मगर तुम
जो की सिर्फ एक
छलावा हो
इस दुनिया के दर्द से दूर भागने का
उस दिन भी बस
मुझे दिलासा दे रहे थे
कि
मैं अपनी उलझनों को प्रदर्शित कर दूँ
मगर
मैं औरो की तरह
तुम्हारे इस N/W में 
हाँ-हाँ जाल में
फसने वाला नहीं
समझे न
तुम एक झूठ हो
जिसे सब अपनाना चाहते हैं
क्यूंकि सबको पता है
वास्तविकता बहुत भयावह
और अराजक सी है
और तुम्हारा काल्पनिक संसार
उन्हें कुछ पलो का
सुकून देता है
एक उम्मीद देता है
एक खुसी देता है
मगर सब झूठ
अरे
तुम्हारा वजूद
और अस्तित्व ही क्या
जो मुझे जानते हैं
वो जानते हैं
की तुमसे बड़ा झूठ हूँ मैं
अरे लोग तो
मुझे pinch करके चेक करते हैं
की मैं हूँ भी या नहीं
तो फिर
इसलिए मैं जा रहा हूँ
हमेशा हमेशा के लिए
तुमसे दूर
झूठ से दूर
कल्पनाओं और भ्रम से दूर
एक सच के लिए
जहाँ
मुझसे नफरत करने वाले
मेरी आँखों में आँखे डालकर
कह सकेंगे
तुम बहुत बड़े चूतिया हो
उन्हें तुम्हारे कारण
झूठ नहीं बोलना पड़ेगा
जहा
मुझे तुम्हारे
notification का आदि नहीं होना पड़ेगा
अपनों का जन्मदिन याद रखने के लिए
मैंने समझ लिया
डूबने के बाद ही सही
की इंतज़ार करना बेकार है
यदि आग है
तो अंदर है
तुम सिर्फ छलावा हो
ढोंग हो
एक झूठ हो
दुआ करना मुलाक़ात न हो
क्योंकि हुयी
तो फिर तुम्हे मेरी जरुरत होगी
मुझे तुम्हारी नहीं
bye bye
अलविदा Facebook...
                                              -अभिषेक (King Of Hearts)

Saturday, 19 March 2016

अजीब बँटवारा...........


धरती को खंड-खंड करके 
कई हिस्सों में बाँट दिया 
कुछ हमने रखा 
कुछ आपने ले लिया 
मेरी धरती पे 
हरियाली बहुत है 
और 
आपकी पे केसर 
मेरी धरती पे 
उमीदो की रौशनी बहुत है 
और आपकी पे 
ख़ामोशी की ठंडक 
आपकी धरती पे 
जब बरसात होती है 
तो कीचड होता  है??
लोग कहते हैं 
हमारे यहाँ नहीं होता 
मेरी धरती पे 
सूरज ज्यादा रौशनी करता है 
सुना है 
आपसे तो
वो बहुत चिढ़ता है 
हवा भी
भेद-भाव करती होगी आपसे 
हमारे यहाँ
बहुत ज्यादा बहती है क्यूंकि 
पता नहीं 
और क्या क्या अंतर है 
आपकी और मेरी धरती में 
मगर 
मेरी धरती पे 
रहने वाले 
आदमी नहीं 
आदमखोर हैं 
ठीक आपकी धरती के 
लोगों की तरह 
जिन्हें अपने स्वार्थ के लिए 
मैंने 
कभी राजनीति का 
तो 
कभी धर्म का 
चोला पहने 
आदमियों का 
उनकी संवेदनाओं का 
और उनकी परिस्थितियों का 
भक्षण कर रहे हैं 
धरती को विभाजित हुए 
वर्षों हो गए 
अब तो ये आदमखोर 
बस इसके आदमियों के 
टुकड़े कर रहे हैं............
                                                    -आक्रोशित कवि (अभिषेक) 

Friday, 18 March 2016

प्रतिबिम्ब........

यूँ तो
सब कुछ मेरा ही है
मगर फिर भी
सब अधूरा है आपके बिना
जब पहली दफा देखा था
तो लगा था
मैं ही हूँ
बस लिबास और ज़ेहन बदल गया हो
बाकी एहसास और अंदाज़ वही था
विचारो की क्रांति
हर बार इतनी आकर्षित नहीं करती मुझे
मगर
आपकी कशिश इतनी ग़ज़ब की थी
की
आपका फितूर मुझे
आपका शागिर्द बना गया
वो हौसला
वो इरादे
वो बेहतरीन मुस्कान
वो जीने की कला
वो सकारात्मक सोच
वो आँखों का ग़ज़ब का नूर
पता भी नहीं चला
कब शिद्दत से
मेरी ख्वाहिशो में आप आ गए
यदि मौका मिला
बदलने का ज़िन्दगी को
तो आप बनना चाहूंगा
क्यूंकि
मैंने देखा है
महसूस किया है
आंसुओ को पीकर मुस्कुराना
आसान नहीं होता
और फिर तो आपके आंसू
आज भी
जलजला हैं मेरे लिए
मुझे मालूम है
की आपको इल्म भी नहीं है
न ही एहतेराम है
की परदे में
हसरतो का तूफ़ान है
नहीं पता मुझे
की ये कैसी ख्वाहिश है
मगर
मेरे कलेजे का टुकड़ा
जब भी चमकेगा
तो आपकी तरह ही चमकेगा
आपकी तरह ही चहकेगा
और आपकी तरह ही
सारी फिज़ाओ में महकेगा
और वैसे भी
मैं तो इस फुलवारी के
माली का मुरीद हो गया हूँ
जो ऐसा फूल
दुनिया को दिया है
उनकी दी हुयी खाद
उनका सींचा हुआ प्यार
इस फूल की १-१ पंखुड़ी में
साफ़ साफ़ झलकता है
इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता
की आँखों और लफ्ज़ो से
आप मौन हैं
कई अरसे से
मगर
जनता हूँ
कितना दर्द पीते
हर एक सांस के बाद वादा है मेरा
क्यूंकि
दर्पण को देखकर
ये अश्क कहते हैं
या तो आप मेरा प्रतिबिम्ब हो
या फिर मैं आपका
प्रतिबिम्ब........
                                                                   -सिरफिरा कवि (अभिषेक)

Saturday, 12 March 2016

मेरा गुरूर..........

वाह
हवाओ की ठंडक से
ऐसा लगा
जैसे फिर
मेरा गुरूर लौट आया हो
जिसे मैं
हर पल
हर लम्हे में
याद करता हूँ
मेरी आँखों का
जैसे वो नूर लौट आया हो..
न जाने कब उसकी पलकों को
मैंने अपना बनाया था
कब उसके दर्द
अपनी साँसों में उतारे थे
उसकी न रुकने वाली हँसीं
हमेशा हँसीं न होती थी
बल्कि इस बात का इल्म कराना
की मैं तड़प रही हूँ
झुलस रहा हूँ
इस आग में
मेरा गुरूर
कि
उसकी हंसी को लौटा लाऊंगा
धुंधला पड़ गया था
उसे
जो हँसीं में
ख्वाबो की रौशनी में
कुछ नज़र आने लगा था
न जाने क्या पाने की होड़ में
मेरा गुरूर तोड़ कर
चली गयी
आज
इस मौसम के साथ
पहली बार जब उसके
रुखसारों के लालिमा को
याद करता हूँ
तो बहुत याद आता है
उस मौसम का
मेरा गुरूर..........
                                                       -सिरफिरा कवि (अभिषेक)

सबसे पुराना धर्म......................


धरती को जन्मे
कई करोड़ों वर्ष गुज़र चुके हैं
मगर आज भी ये विवाद जारी है
कि
इस धरती पे सबसे पहले कौन आया
कौन सा खुद
रब कौन सा
ईश्वर या फिर प्रभु
किस धर्म ने सबसे पहले
पृथ्वी का संचालन किया
आज मई आपको बताता हूँ
उस अनोखे
सबसे पुराने और
सबसे पुख्ता धर्म के बारे में
धर्म क्या है
तात्कालीन परिस्थितियों का समाधान
देने वाले
सवालो के जवाब निर्मित कर
चुप करने वाली क्रिया
को धर्म कहते हैं
ये सब मेरी धारणाये हैं
जो शायद
कई विश्वासो से गिरकर
कल्पनाओ से निर्मित हुयी हैं
इसके पीछे किसी की
व्यक्तिगत आलोचना या मातहत
सम्मिलित नहीं है
तो
जब मैंने
कुछ इतिहास के पन्ने
वर्तमान की धूल हटाकर देखे
तो
पता चला
कि
जो धर्म किसी की सिखा में
किसी की टोपी, किसी की पगड़ी में
किसी के जनेऊ,किसी की दाढ़ी में
तो किसी के निवस्त्र पवित्र तन में
झलकता है
वो धर्म नही
एक ज़रिया है
उस सबसे पुराने धर्म को
सब तक पहुचाने का
क्यूंकि जब
किसी काफिले में
मैं प्यासा तड़प रहा था
तो जिस व्यक्ति ने
मुझे पानी दिया
उसका वही धर्म था
मेरी बेटी को चोट लगने पर
जब उस सड़क से गुजर रहे
अनजान व्यक्ति की
आँखों की हलचल में दिखाई दिया
उसका भी वही धर्म था
मुझे नहीं पता
की क्यों
ये भीड़ आस्था के परदे में
खुद के विचारो
और संस्कृति को घोंट रही है
बस प्रतिस्पर्धा ही धर्म रह गया है
जबकि
असली और सबसे प्राचीन धर्म तो एक ही है
जो सिर्फ एक ही चीज सिखाता है
सृष्टि के हर कण की कद्र करो
हर जीव से प्रेम करो
हर निर्जीव का सम्मान करो
आँखों और दिल में
समर्पण रखो
मगर
सबसे पहले
और सबसे ज्यादा
खुद को खुश रखो
क्यूंकि इस धर्म का नियम है
आप खुश तो जग खुश
ये धर्म है प्रेम का
जिसका कोई रंग नहीं
कोई ग्रन्थ नहीं
कोई रूप नहीं
कोई आकार नहीं
बस ये तो
ह्रदय की बड़ी से बड़ी तृष्णा
की संतृप्ति इकलौता माध्यम है
यही है मूल
सत्य
और अमर
सबसे पुराना धर्म......................
                                                             -सिरफिरा कवि (अभिषेक)

Wednesday, 9 March 2016

एक और रत्न...

याद आता है
आषाढ़ का एक दिन
जब मैं शकुंतला के साथ
अंधे युग को पार कर
मधुशाला जाया करता था
जहाँ
कदम के पेड़ के नीचे
अविरल बसंती हवाओं के बीच
कामायनी 
मेरा इन्तेजार करती थी
हमेशा
इस पार से उस पार
पहुँचते
मेरे कदम ठहर जाया करते थे
और उस रेशमी नगर में
मुझसे पुछा करते थे
चाँद का कुर्ता
कहाँ छोड़ आये तुम
जो गीतांजलि ने तुम्हें
नये बचपन की
सौगात पे दिया था 
दूर का सितारा
मुझे बार-बार कोसता है
कि
तुम आधे हो अधूरे हो
क्योंकि वो मेघदूतों से
विनती कर रही है
तुम्हारे लौट आने का
किसी तरह
जो ग़ज़लों में उलझी हुई है
मीर की...
उसे अभी भी
मुक्तिबोध के यथार्थ से
भय लगता है
आज भी पाश उसके लिए
अबूझ पहेली ही है
और तुम हो कि
उसके पल्लू में
न जाने कितने जुलूस
का बोझा बाँध आये हो
और उसने उसे
मीरा की तरह
विष नहीं अमृत मानकर पी लिया है
जिस के कारण
उसका मैला आँचल भी
कोणार्क की तरह
कनुप्रिया सा मधुर
महसूस हो रहा है
वो गोदो के इंतज़ार में
कहीं यथार्थवाद को
असंगत न समझ बैठे
वो भी कहीं मृत्युंजय की भाँती
कालजयी न हो जाये
इसलिए मल्लिका के ईवर
लौट चलो
इस पागल लड़की के दीवानेपन से दूर
पाश्मीने की रातों में...
जहाँ आधी रात के बाद
एक साधु कहानी सुनाता है
पॉपकॉर्न खाते हुए
एक अशुद्ध बेवक़ूफ़ की
तिरछी रेखाओं से गुदी
अपनी डायरी को पढ़कर....................................
                                                                         -सिरफिरा कवि ( अभिषेक)

Tuesday, 8 March 2016

आखरी मोहब्बत.........

ज़माने गुजरे
जब इबादत की पहल
हसीन हुआ करती थी
तब तो जैसे हवायें भी
हमारी मुस्कुराहटों की
मोहताज हुआ करती थी
अब
सब कुछ बदल गया था
जैसे
सारे अरमान
किसी बंजर ज़मीन में
काँटों की झाड़ियो सा सूख रहे थे
एक नीरसता
मेरे ह्रदय के साथ मेरे विचारो को भी
धीरे धीरे खोखला कर रही थी
तब उस रोज़
हर सुबह की भाँती
एक नयी सुबह हुयी
एक उम्मीद लिए फिर
हर रोज़ की तरह
साइकिल से निकल पड़ा
की तभी
भीड़ को चीरता हुआ
कुछ अजीब सी चमक लिए
एक मादक मुस्कान के साथ
एक चेहरा
शायद मासूमियत का पर्याय
मेरी चक्षुओ को भेदता
सीधे दिल में उतरता सा बगल से निकला
कुछ पल का ये टकराव
मुझे जैसे घायल सा कर गया
उसके इत्र की खुसबू
जैसे रोम-रोम में भर गयी
उसकी खत्म न होने  वाली मुस्कान
बादलो सी
जैसे धरती की प्यास बुझाने आतुर
मेरे रुखसारों की ज़मीन पे छा गए
जिसके गुरुत्वाकर्षण से
अचानक उस रोज़ जैसे रुकी हुई
मेरी रुह की इबादत
का नूर फिर से जगमगाने लगा
तब जाना की चेहरों की चमक
ही काफी है जीने के लिए
खुश रहने के लिए
यदि वो चेहरा कोई नाम न मांगे
किसी रिश्ते की बागडोर न मांगे
तो बिना शर्त के
जिंदगी नवीन और अमर हो जाती है...
शायद वही था
मेरी आखरी मोहब्बत का
पहला मंज़र.......
                                                    -सिरफिरा कवि (अभिषेक)

Saturday, 5 March 2016

हादसा



न जाने किन शब्दों में 
अपना हाल बयां करूँ 
आंसूओं के सिवा 
आँखों को और दिल को 
कुछ सूझता ही नहीं 
कुछ महीनो पहले 
जब मुझे चंद कागज़ के 
टुकड़े मिले थे 
मेरी व्यावसायिक कार्य की 
पहली किश्त के रूप में 
उस रोज़ 
बड़ा विचलित हुआ था 
असमंजस था 
के क्या करूँगा इनका 
जिनका मेरे अस्तित्व में 
मृगमरीचिका जितना  योगदान है 
फिर एक तरकीब सूझी 
जिसके तहत 
कई रातो तक सोया नहीं 
कुछ नया और अपना सा 
करने की ख्वाहिश लिए 
एक कोशिश की 
सारी भावनाओं को 
शब्द दिए 
मोती जैसे एक एक याद को 
माला में पिरोया 
और फिर 
उसे एक लिफाफे में 
बंद कर के भिजवा दिया 
सोचा खुद जाऊँ 
अपने हाथ से अर्ज़ी दूँ 
मगर 
इतनी तड़प थी कि 
रुक न पाया 
और सबको चौकाने 
खुस करने के बहाने उसे पोस्ट कर दिया 
एक माह बीता 
बड़े संघर्षो के बाद 
वो आज पंहुचा 
इंडिया पोस्ट के सौजन्य से 
मगर 
ये क्या 
सारे अरमान ऐसे टूटे 
जैसे शरीर से रूह निचोड़ ली हो किसी ने 
किसी ने आँखों के अंदर तक जाकर 
खून भर दिया हो 
सिसकियो में मेरे 
सिर्फ दर्द को ऐसे घोल दिया हो 
जैसे एक पक्षी के पंख उखाड़ दिए हो 
लिफाफो की जगह 
निकले 
सिर्फ newspaper के टुकड़े 
जो मैंने नहीं भेजे थे..........
                                                    -टूटा-फूटा कवि(अभिषेक)